भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं अकेला हूँ प्रिये / नमन दत्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं अकेला हूँ प्रिये
हर दृश्य में, हर श्राव्य में,
हर मूर्त में, हर काव्य में,
जो परे हर सुख से, मैं वह क्लांत बेला हूँ प्रिये।
मैं अकेला हूँ प्रिये।
इक संग तेरे जीवन मधुर रसधार बन बहता गया,
तेरे लिए हर क्लेश दुनिया का सहा, सहता गया,
जो कुछ सुना जो कुछ कहा, अब शेष न कुछ भी रहा
अब धूप में यादों की परछाईं का मेला हूँ प्रिये।
मैं अकेला हूँ प्रिये।
था गगन विस्तृत कि जब मन में उड़ानें थीं बहुत,
दूर कोसों दूर इस दिल से थकानें थीं बहुत,
जाने मगर ये क्या हुआ, हर जोश मन का सो गया
जो घुल रहा आँसू में, वह मिट्टी का ढेला हूँ प्रिये।
मैं अकेला हूँ प्रिये।