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मैं अटपटा आदमी / निरंजन श्रोत्रिय
Kavita Kosh से
इन दिनों मैं एक अटपटा व्यक्ति होता जा रहा हूँ
इस कथित सहज-सरल दुनिया में
मैं एक अटपटा व्यक्ति
अटपटी पोशाक, अटपटे व्यक्तित्व के साथ
अटपटी बातें करता हूँ
मित्रों में सनकी और अफसरों में कूड़मगज
कहलाने वाला मैं
अपने अटपटेपन पर शर्मिन्दा होने से मुकरता हूँ
शोकसभा में दो मिनट के मौन की अंतिम घड़ी में
फूट पड़ती है मेरी हँसी
आभार प्रदर्शन के औपचारिक क्षणों में
गरिया देता हूँ सभापति को
दफ्रतरों में घुसता हूँ अब भी
पतलून की जेब में हाथ डाले बगैर
मुझे पता है
अटपटे के दुःख और
विशिष्ट के सुख के बीच की दूरी
अपनी बात न कहकर मैंने पहले ही
बहुत खतरे हैं उठाये
अब अटपटी बातों की वजह से
और गंभीर खतरे उठाऊँगा ।