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मैं अपनी आँख को उस का जहान दे दूँ क्या / रफ़ी रज़ा

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मैं अपनी आँख को उस का जहान दे दूँ क्या
ज़मीन खींच लूँ और आसमान दे दूँ क्या

मैं दुनिया ज़ाद नहीं हूँ मुझे नहीं मंज़ूर
मकान ले के तुम्हें ला-मकान दे दूँ क्या

कि एक रोज़ खुला रह गया था आईना
अगर गवाह बनूँ तो बयान दे दूँ क्या

उड़े कुछ ऐसे कि मेरा निशान तक न रहे
मैं अपनी ख़ाक को इतनी उड़ान दे दूँ क्या

ये लग रहा है कि ना-ख़ुश हो दोस्ती में तुम
तुम्हारे हाथ में तीर ओ कमान दे दूँ क्या

समझ नहीं रहे बे-रंग आँसुओं का कहा
उन्हें मैं सुर्ख़-लहू की ज़बान दे दूँ क्या

सुना है ज़िंदगी कोई तह-ए-समुंदर है
भँवर के हाथ में ये बादबान दे दूँ क्या

ये फ़ैसला मुझे करना है ठंडे दिल से ‘रज़ा’
नहीं बदलता ज़माना तो जान दे दूँ क्या