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मैं अपने कानों में गूँजता हूँ / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
मैं गहरे-गहरे समुंदरों की सियाहियों से लिखा गया हूँ
हमा-जहत जिदंगी का लेकिन में एक छोटा सा वाक्या हूँ
हरेक शय मर चुकी है मुझमें कि औऱ भी कुछ रहा है बाक़ी
तमाम दिन की हलाकतों से जो बचके निकला तो सोचता हूँ
अगरचे सूरज की सरज़मीं पर कहीं-कहीं छांव भी बहुत है
मगर जो पैदा नहीं हुए हैं, मैं उन दरख़्तों को ढूँढ़ता हूँ
मैं कोई ऐसा नगर नहीं हूँ, गिने चुने रास्ते हो जिसके
जिधर से चाहो उधर से गुज़रों, मैं रेगज़ारों का सिलसिला हूँ
जहाने-सौतो-सदा से आगे की मेरी दुनिया बसी हुई है
कभी तो मेरे क़रीब आओ, मैं अपने कानों में गूँजता हूँ
1-हमा-जहत--समस्त दिशाओं में मला हुआ
2-हलाकतों--मौत जैसी घटना
3-जहाने-सौतो-सदा-- स्वर-संसार