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मैं अपराधिनि / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मैं अपराधिनि, अघी, कलंकिनी हूँ निश्चय ही सभी प्रकार।
छोड़ तुम्हारे पद-तलको पल-भर न मुझे जाना स्वीकार॥
दुत्कारो, डाँटो, ठुकरा‌ओ, भय दो, करो असद्‌‌-व्यवहार।
पड़ी रहूँगी, नहीं हटूँगी, तिलभर छोड़ चरण-तल-द्वार॥
अति रूखा बर्ताव करो या दो मनमाना मनका प्यार।
पर मत कहना कभी चले जाने को मुझसे तुम, सरकार!
नहीं लाज-भय-सकुच-सहज-भ्रम, नहीं लोक-परलोक-विचार।
नहीं तनिक स्तुति-निन्दाका डर, कहे क्यों न कुछ भी संसार॥
मधुर-भयानक सब स्थितियों का सदा करूँगी मैं सत्कार।
चरण-धूलि मैं चरणों में ही लगी रहूँगी नित अनिवार॥