मैं अभी ‘अँधेरे में’ हूँ / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय
रात सोते हुए
थप्पड़ एक मारता हूँ खींचकर
अपने ही गाल पर
हाथ की कठोरता महसूस होती है
दुखने लगते हैं पैर अचानक
आह की आवाज़ आती है
बाल पकड़ कर बैठ जाता हूँ
टूटने लगती है कमर
कलाई में ऐंठन शुरू हो जाती है
बड़बड़ाने लगता हूँ जोर जोर से
आँखें खुलती नहीं बहुत देर तक
बहुत देर तक कुछ चलता रहता है
दिल और दिमाग में
कि जैसे कोई खदेड़ रहा हो
किसी को
कोई भाग रहा हो
किसी से बच जाने की कोशिश में
कोई खड़ा तमाशबीन बना हुआ है
बहुत देर से चुपचाप
और मैं चाहकर भी नहीं कर पा रहा हूँ कुछ
सामने से दौड़े चले आ रहे हैं
कुछ मीडियाकर्मी
पुलिस के डंडे से बचते-बचाते
धमाचौकड़ी में फंसी औरतें
बस रोये जा रही हैं
और मैं अभी भी आँखें खोलने के प्रयास में हूँ
सभी घर वाले आ खड़े हुए हैं अगल-बगल
सब सभी से कुछ कह रहे हैं
बिटिया रो रही है तो रोये जा रही है पत्नी
पड़ोसी कह रहे हैं उठाकर ले चलो बाहर
आँख खुलती है अचानक
देखता हूँ
मैं अभी भी 'अँधेरे में'हूँ
भय का माहौल बन गया है
मैं अवाक हूँ, चुप और शांत भी
लोग एक दूसरे से कर रहे हैं सलाह
बिटिया सिसक रही है अभी भी
पत्नी चाय गरम करने में लग गयी है
अनागत के भय से
माँ प्रार्थना कर रही है सृष्टि से
हे सृष्टि! मेरे बच्चे को दूर रख
'अँधेरे में' खो न जाए वह
बचे रहने के लिए उसे उजाले की राह दे