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मैं आज़ाद हो गयी / सुदर्शन रत्नाकर
Kavita Kosh से
टूटती रही मैं
घर में रखे काँच के
बर्तनों की तरह। जिन की
आवाज़ कम और किरचें
ज़्यादा हुईं
दिल से बहा ख़ून और आँखें
नम हुईं
घर में न खिड़की थी कोई
और न था जीना
बंद थे दरवाज़े
चिल्लाऊँ भी तो कौन सुनता
आवाज़ें
क्या हुआ जो निकासी के रास्ते
बंद थे
रोशनी के लिए झरोखा तो था
जहाँ आज़ादी की रोशनी दीख रही थी
और मैं आज़ाद हो गई।