भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं इधर से उधर जब गया ही नहीं / अवधेश्वर प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
मै इधर से उधर जब गया ही नहीं।
जब हृदय से हृदय भी मिला ही नहीं।।
फिर मुझे क्यों नज़र से गिरा तू दिया।
एक कदम भी कभी तू चला ही नहीं।।
साथ रहकर बड़ी घात करती रही।
वार मुझपर किया जो लगा ही नहीं।।
आज फिर तू नई चाल चलने लगी।
प्यार तो अब तलक तू किया ही नहीं।।
गर कहीं दिल तुम्हारी लगा है बता।
हम कभी तुम्हें आज तक छला ही नहीं।।