मैं इस नीम रात यह जानता हूँ / संजय कुमार शांडिल्य
कोई भी सड़क बादलों की नहीं होती है
धरती से उठती हुई
स्वर्ग तक जाती हुई
मैं इस नीम रात यह जानता हूँ
मैं पृथ्वी का पहला स्वप्नजीवी नहीं हूँ
स्वप्न एक कवच है
पहाड़ से फेंको
या आग में जलाओ
यह बचा रहता है
नींद कछुए की तरह
एक मुलायम-सा जीव है
स्वप्न के बाहर
कभी-कभी ही झाँकता है
जब तक स्वप्न बचा रहता है
नींद बची रहती है
मैं इस नीम रात यह जानता हूँ
मैं पृथ्वी का पहला दरवेश नहीं हूँ।
ऋषियों ने मुझे बाघम्बर फेंककर मारा
देवता मुझसे कुपित रहे
मैंने उस शाप में पत्थर होने से
इन्कार कर दिया
जिसमें मुझे सच बोलने से
चुप रहना था
मैं अब बोलता जाता हूँ और बदलता जाता हूँ
एक नहीं बहने वाली नदी में
मेरे भीतर अब भी इन्कार की रेत उङती है
मैं इस नीम रात यह जानता हूँ
मेरे सच बोलने से युद्ध का नियम नहीं
बदलने वाला
मैं पृथ्वी का पहला धर्मराज नहीं हूँ।
यह नीम रात भी तो पहली नीम रात नहीं है
ऋषियों के बाघम्बर
देवताओं के क्रोध
और सहस्र वर्षों का शाप
स्वप्नों से बाहर मेरी नींद
पृथ्वी पर होने में पहला कुछ नहीं होता है
और आख़िरी भी नहीं
मैं इस नीम रात यह जानता हूँ।