भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं ऐसा हूँ विरुद्ध मैं वैसा होता / राजर्षि अरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पत्थर ही नहीं
हर चीज़ को सर नवाते फिरता हूँ मैं
कितना ग़रीब और बेबस बना दिया है
ईश्वर ने मुझे

झुकना प्रेम से, प्रार्थना में
कितना कठिन हो गया है
ईश्वर के संभावित अस्तित्व का ख़ौफ़
इतना लद जाता है मन पर
कि सर पत्थर तक जा गिरता है ।

मैं नहीं समझ पाता
डरना चाहिए अपने पिता से
या उद्दंडतापूर्वक अपराध करके
क्षमा माँगने का ढोंग करना चाहिए

या माध्यम बनाकर किसी को
अपनी भूल बेच देनी चाहिए
ईश्वर के बाज़ार में
और खोजना चाहिए
झूठे पश्चात्ताप का मूल्य ।

जो भी हो
अगर मैं ऐसा हूँ तो इसलिए कि
मैं ऐसा हूँ
अगर मैं वैसा होता तो इसलिए कि
मुझ पर ईश्वर की कृपा होती ।