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मैं और तू / फ़राज़
Kavita Kosh से
मैं और तू
रोज़ जब धूप पहाड़ों से उतरने लगती
कोई घटता हुआ बढ़ता हुआ बेकल[1]साया
एक दीवार से कहता कि मेरे साथ चलो
और ज़ंजीरे-रफ़ाक़त[2]से गुरेज़ाँ[3]दीवार
अपने पिंदार[4]के नश्शे में सदा ऐस्तादा[5]
ख़्वाहिशे-हमदमे-देरीना[6]प’ हँस देती थी
कौन दीवार किसी साए के हमराह[7]चली
कौन दीवार हमेशा मगर ऐस्त्तादा रही
वक़्त दीवार का साथी है न साए का रफ़ीक़[8]
और अब संगो-गुलो-ख़िश्त[9]के मल्बे के तले
उसी दीवार का पिंदार है रेज़ा -रेज़ा[10]
धूप निकली है मगर जाने कहाँ है साया