मैं और वह / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
‘मैं’ और ‘वह’
दोनों जानते थे
कि हमें अलग होना है
हम दोनों एक हो ही नहीं सकते
आकाश और धरती का मिलन
भ्रम हीं तो है।
यह जानकर भी
हम मिलते रहे
लिखते रहे
वादे गढ़ते रहे
एक दिन
जब सूर्य ढलने को था
उसने मुझे अपनी तस्वीर दी
कहा,
विछोह के क्षणों में
तुम्हें यही तस्वीर
काम देगा
उसने स्वीकारा कि यह उपहार
मेरी जातिगत कमजोरी की याद दिलायेगा
यही तोहफा
मेरी नारी होने का बोध करायेगा
और जब-जब तुम याद करोगे
मैं हसूँगी
तुम गाओगे
मैं नाचूँगी
बाबरी मीरा की तरह
तुम्हारी यह साँवरी
किसी राणा की हाकर भी
तुम्हारी रहेगी
और वह चली गई
मैं नहीं जानता
कि उस पार क्या गुजरती है
लेकिन जब-जब भी मुझे
उसकी याद आती है
मैं बिजली के खंभे की तरह
झनझना उठता हूँ
और उसकी तस्वीर
मेरे पास उसी तरह है
जिस तरह छाया देह की होकर भी
देह से दूर रहती है।