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मैं कहाँ हूँ, क्या हूँ / रामगोपाल 'रुद्र'

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मैं कहाँ हूँ, क्या हूँ, नहीं पता;
मेरे होने में मेरी क्या खता?
किसी भाँति हल जो न हो सका,
मेरी ज़ीस्त ऐसा हिसाब है!

मुझे किसने किसलिए लिख दिया,
किस अजब अदा से अयाँ किया?
जिसे कोई पढ़ न समझ सके,
मेरी ज़िन्‍दगी वह किताब है!

क्यों करूँ किसी से कोई गिला,
क्या मिला, यहाँ क्या नहीं मिला?
खुदनुमा खुदी के सवालों का,
मेरी बेखुदी ही जवाब है!

उन्‍हें क्या पता, कहाँ क्या कटा,
गुँथा और अँगारों से जा सटा?
किया लुक्मा ज्यों ही जिगर मेरा,
कहा क्या लज़ीज़ कबाब है!

कभी बेहिजाब मिले थे वो,
कि बहार बनके खिले थे वो,
जिन्‍हें चिढ़ थी मेरी नक़ाब से,
उन्हें अब मुझी से हिजाब है!

छुटा जाल से तो उड़ा, मगर
कहाँ जाऊँ तुझसे मैं भागकर?
कहीं भी जो पीछा न छोड़ती,
तेरी आँख है कि उक़ाब है!

यों तो तू जहाँ है, बहार है,
खड़ी गुंचोगुल की क़तार है;
जो खिजाँ में भी है दमक रहा,
देख, यह भी एक गुलाब है!