मैं किसकी औरत हूं / सविता सिंह
मैं किसकी औरत हूं
कौन है मेरा परमे वर
किसके पांव दबाती हूं
किसकी मार सहती हूं
ऐसे ही थे सवाल उसके
बैठी थी जो मेरे सामने वाली सीट पर रेलगाड़ी में
मेरे साथ सफर करती
उम्र होगी कोई सत्तर-पचहत्तर साल
आंखे धंस गयी थीं उसकी
मांस शरीर से झूल रहा था
चेहरे पर थे दुख के पठार
थी अनेक फटकारों की खाइयां
सोचकर बहुत मैंने कहा उससे
मैं किसी की औरत नहीं हूं
मैं अपनी औश्रत हूं
अपना खाती हूं
जब जी चाहता है तब खाती हूं
मैं किसी की मार नहीं सहती
और मेरा परमे वर कोई नहीं
उसकी आंखों में भर आई एक असहज खामोशी
आह! कैसे कटेगा इस औरत का जीवन
संषाय में पड़ गयी वह
समझते हुए सभी कुछ
मैंने उसकी आंखों को अपने अकेलेपन के गर्व से भरना चाहा
फिर हंसकर कहा मेरा जीवन तुम्हारा ही जीवन है
मेरी यात्रा तुम्हारी ही यात्रा
लेकिन कुछ घटित हुआ जिसे तुम नहीं जानतीं
हम सब जानते हैं अब
कि कोई किसी का नहीं होता
सब अपने होते हैं
अपने आप में लथपथ-अपने होने के हक से लकदक
यात्रा लेकिन यही समाप्त नहीं हुई है
अभी पार करनी हैं कई खाइयां फटकारों की
दुख के एक दो और समुद्र
पठार यातनाओं के अभी और दो चार
जब आखिर आएगी वह औरत होएगी
जिसे देख तुम और भी विस्मित होओगी
भयभीत भी शायद
रोओगी उसके जीवन के लए फिर हो सशंकित
कैसे कटेगा इस औरत का जीवन फिर से कहोगी तुम
लेकिन वह हंसेगी मेरी ही तरह
फिर कहेगी
‘उन्मुक्त हूं देखो
और यह आसमान
समुद्र यह और उसकी लहरें
हवा यह
और इसमें बसी प्रकृति की गंध सब मेरी हैं
ओर मैं हूं अपने पूर्वजों के श्राप और अभिलाशाओं से दूर
पूर्णतया अपनी!’