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मैं कौन? कहाँ से तिर आयी हिम-कणिका-सी ! / प्रथम खंड / गुलाब खंडेलवाल

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मैं कौन? कहाँ से तिर आयी हिम-कणिका-सी !
सम्मुख लहराती दृग के स्वप्न-यवनिका-सी
पितु! जननी मेरी कहाँ, नहीं स्मृति क्षणिका-सी
क्या मैं भी सुरपुर में उड़ जाऊँ गणिका-सी
देवों को, हाय! रिझाने?
. . .
 
मैं कली, सूँघ सब जिसे निमिष में दें उछाल?
मैं रत्न कि रख लें जिसको युग-युग तक सँभाल?
मैं जीवन-तरु का मूल कि उसका आल-बाल?
मैं विष की प्याली हूँ कि अमृत से भरा थाल?
हे वृद्ध पितामह! बोलो
. . .
जो प्रेम अमर मुझको छूकर वह मलिन दीन
कैसी मृण्मयता यह हिरण्य भी मूल्य-हीन?
जो शक्ति पुरुष की, दुर्बलता मेरी वही न!
मैं तिल-तिल मिटकर हो जाऊँ तम में विलीन
हा! क्रूर लेखनी रोको!
यह मुझे देखता कौन वृद्ध तापस सरोष
जैसे कर बैठी मैं कोई गम्भीर दोष?
क्या रहूँ भाँवरी भरती इसकी मन मसोस?
मैं कमल-पत्र पर, पिटा प्रात की चटुल ओस
झंझा में मुझे न झोंको

हँस पड़े पितामह दुग्ध-धवल दाढ़ी समेट
बेटा! ललाट का लिखा कौन कब सका मेट!
मैं स्वयं कमल-धृत-बिंदु, सिन्धु से नहीं भेंट
इस महायंत्र को कब जाने किसने उमेठ
धर दिया शून्य-सागर में?
'एकोऽहम् बहुस्याम' कब किसने मन्त्र बोल
नीरव अनंत में दिए कल्प दृग-कमल-खोल
मैं हार गया रचते-रचते शत-शत खगोल
दिखता न अंत, माया- छाया-सी रही डोल
लय- स्रजन लिए युग कर में
. . .
यह कमल नहीं अंगार, अपरिवर्तित जिस पर
मैं चिर अनादि- से एकाशन शासन-तत्पर
मुझसे तो अच्छे देव, मनुज, हँसकर रोकर
सुख-दुख में लेते जो नूतन आकृतियाँ धर
चढ़ जन्म-मरण-दोलों पर