भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं ख़ुद को हर इक सम्त से घेर कर / मनमोहन 'तल्ख़'
Kavita Kosh से
मैं ख़ुद को हर इक सम्त से घेर कर
खड़ा हूँ परे ख़ुद से मुँह फेर कर
न ख़ुद से भी मिलने की जल्दी मचा
मेरी मान थोड़ी बहुत देर कर
मैं अपना की मुद्द-ए-मुक़ाबिल हूँ अब
कहूँ ख़ुद से ले अब मुझे जे़र कर
कहोगे मगर क्या के ख़ुद को तो मैं
कहीं से भी ले आऊँगा घेर कर
यूँही खो दिया तुझ को भी ख़ुद को भी
कभी जल्दी कर तो कभी देर कर
नहीं साँस लेने का भी ‘तल्ख़’ दम
न साँसों का तो जम्मा ये ढेर कर