तुम्हारी यादों में
जाने क्या जादू है
सिमट जाती हूँ मैं
अतीत के अनबुझे
टूटे हुए पलों में
तुम्हारा नन्हे पांवों से
मेरी और दौड़ना
गिरना, उठना
दूध भरी किलकारियाँ
मेरे चारों ओर
किमखाब से खिंच जाते थे
जिनके गुदगुदे बिछावन पर
मैं ख़ुद को
मलिका समझती थी
तुम्हें पाकर अपने महल
परकोटों में मालामाल थी मैं
कितने मचल जाते थे तुम
जब मैं तुम्हारे
गालों को चूमती
अपनी नन्हीं मुट्ठियों से
तुम गालों को रगड़ कर
हथेलियों में छुपा लेते थे
उस एक पल में मैं
सिहर कर सोचती
तुम्हारे मन का वैराग्य
मोह को छिटकने की
तुम्हारी अदा
जहाँ जाने कितने झरने
फूट पड़ते थे
सवालों के ,शंकाओं के
उन सारे सवालों को
मेरे हाथों में
अनसुलझा सौंप
तुम चले गए
तुम्हारा जाना
जैसे बीहड़ों में
मेरा गुम हो जाना
पर मैं गुमी नहीं
तुम्हारी अधूरी ज़िन्दगी का तिलिस्म
वह मोहक इंद्रजाल
मेरे वजूद को अर्थ देता
घेरता रहता है मुझे हर बार