मैं चलता / बुद्धिनाथ मिश्र
मैं चलता
मेरे साथ चला करता पग-पग
वह सत्य कि जिसको पाकर
धन्य हुआ जीवन ।
मेरे समकक्ष न कोई साधु-संन्यासी
मेरी स्पर्धा सर्वदा स्वयं ईश्वर से है
उसके दर्शन की जरा नहीं चाहत मुझमें
वह कहाँ नहीं है, यही सवाल इधर से है ।
मैं जगता
मेरे साथ जगा करती धरती
मावस में चाँद-सितारों से
अधभरा गगन ।
जिस दिव्य पुरुष की प्रतिमा को पूजता जगत
वह तो अधिपति का छोटा-सा अभिकर्ता था
भूमिका निभाई उसने मात्र ‘करण’ की थी
कैसे समझाऊँ, कभी नहीं वह ‘कर्ता’ था ।
मैं पलता
मेरे साथ पला करता मोती
धर्म का, काम की सीपी में
सम्पुटित नयन ।
कर चित्रगुप्त मुर्दाघर का लेखा-जोखा
आँकना मुझे है तेरे वश की बात नहीं
हर पाप-पुण्य में मेरे, था वह साथ रहा
जिसको छू पाने की तेरी औकात नहीं
मैं ढलता
मेरे साथ ढला करता सूरज
फिर उगने को
कर प्रातः का संध्या-वंदन ।