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मैं चला मंज़िलों की तरफ़ दो क़दम / विनोद तिवारी

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मैं चला मंज़िलों की तरफ़ दो क़दम
फिर अचानक मेरा रास्ता मुड़ गया

यूँ तो पहली भी मंज़िल बहुत दूर थी
अब तो लो और भी फ़ासला जुड़ गया

मेरी बैचन नज़रों ने ढूँढा बहुत
वो परिंदा न जाने कहाँ उड़ गया

बरसों-बरसों सँभाला था वो एक ख़त
मिट गए हर्फ़ काग़ज़ भी मुड़-तुड़ गया