भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं चुप खड़ा था तअल्लुक़ में इख़्तिसार / मनचंदा बानी
Kavita Kosh से
मैं चुप खड़ा था तअल्लुक़ में इख़्तिसार जो था
उसी ने बात बनाई वो होशियार जो था
पटख़ दिया किसी झोंके ने ला के मंज़िल पर
हवा के सर पे कोई देर से सवार जो था
मोहब्बतें न रहीं उस के दिल में मेरे लिए
मगर वो मिलता था हँस कर के वज़ा-दार जो था
अजब ग़ुरूर में आ कर बरस पड़ा बादल
के फैलता हुआ चारों तरफ़ ग़ुबार जो था
क़दम क़दम रम-ए-पामाल से मैं तंग आ कर
तेरे ही सामने आया तेरा शिकार जो था