भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं जब भी ख़ौफ़ के लश्कर को ज़ेर कर आई / नसीम सय्यद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जब भी ख़ौफ़ के लश्कर को ज़ेर कर आई
नई ज़मीन मेरे पैरों तले उभर आई

ये सोच कर के ज़माना हुआ दुआ भी न की
दुआ को हाथ उठाए तो आँख भर आई

कभी जो याद से उस की पनाह चाही भी
तो बे-कसी की थकन रूह तक उतर आई

न जाने कौन सी तामीर में ख़राबी है
के अपने घर की जब आई बुरी ख़बर आई

निकल के ख़ुल्द से उन को मिली ख़िलाफत-ए-अर्ज़
निकाले जाने की तोहमत हमारे सर आई