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मैं जब भी ख़ौफ़ के लश्कर को ज़ेर कर आई / नसीम सय्यद
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मैं जब भी ख़ौफ़ के लश्कर को ज़ेर कर आई
नई ज़मीन मेरे पैरों तले उभर आई
ये सोच कर के ज़माना हुआ दुआ भी न की
दुआ को हाथ उठाए तो आँख भर आई
कभी जो याद से उस की पनाह चाही भी
तो बे-कसी की थकन रूह तक उतर आई
न जाने कौन सी तामीर में ख़राबी है
के अपने घर की जब आई बुरी ख़बर आई
निकल के ख़ुल्द से उन को मिली ख़िलाफत-ए-अर्ज़
निकाले जाने की तोहमत हमारे सर आई