मैं तुम्हारे प्रेम की / अज्ञेय
मैं तुम्हारे प्रेम की उस प्रोज्ज्वल उड़ान को नहीं पा सकती, पर उसे स्थायित्व देने वाली मैं ही तो हूँ।
तुम जलते हुए अंगारे हो, मैं उस पर छायी हुई राख का पुंज। तुम धधकते हो, मैं उस भीषण ज्वाला की दीप्ति नहीं पाती; पर तुम अपनी अन्तज्र्वाला को बिखरा कर शान्त हो जाते हो, मैं तब भी तो अपनी अभ्यस्त स्निग्ध गर्मी लिये तुम्हें आवृत किये रहती हूँ...
तुम मेरे अस्तित्व के भी प्राण हो, मैं तुम्हारी शक्ति की संरक्षिका मात्र।
यह मेरा स्वार्थ नहीं है कि मैं तुम्हारी प्रलय-क्षम शक्ति को फूटने नहीं देती, अपने सुख के लिए छिपाये रखती हूँ। क्यों कि देखो, जब भी कृतित्व की आँधी हमारी ओर आती है तभी मैं अपना अस्तित्व खो कर उड़ जाती हूँ और तुम्हारे प्रोज्ज्वल ताप को और भी दीप्त हो लेने देती हूँ!