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मैं तुम्हें किसी भी वस्तु की / अज्ञेय

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 मैं तुम्हें किसी भी वस्तु की असूया नहीं करता- किन्तु तुम सब कुछ ले कर चली-भर जाओ, मेरे जीवन में से सदा के लिए लुप्त हो जाओ!
तुम ने मुझे वेदना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिया; मुझ में वही वेदना जम कर और वद्र्धमान हो कर पुष्पित हो गयी है।
तुम चाहो, तो उन पुप्पों को तोड़ ले जाओ, जो वस्तु मैं ने अपने जीवन की अग्नि में तपा कर और भस्म करके सिद्ध की है उसे अभिमानपूर्वक, सदर्प ले जाओ, जैसे कोई सम्राज्ञी किसी दास का तुच्छ उपहास ग्रहण करती है- किन्तु ले कर फिर बस चली-भर जाओ, मेरे जीवन के क्षितिज से परे, जहाँ तुम्हारे उत्ताप का आलोक भी मेरे दृष्टिगोचर न हो!

दिल्ली जेल, 26 फरवरी, 1933