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मैं तुम से अनेक बार / अज्ञेय

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मैं तुम से अनेक बार जान-बूझ कर झूठ कहती आयी हूँ। किन्तु उस के लिए मेरे हृदय में अनुताप नहीं है, क्योंकि मैं नित्य ही आत्म-दमन की घोर यातना में उस का प्रायश्चित कर लेती हूँ।
मैं अपने को एक बार तुम्हें समर्पित कर चुकी हूँ। मैं ने अपना अस्तित्व मिटा दिया है। अब जो मैं हूँ वह है केवल तुम्हारी रुचियों, तुम्हारी इच्छाओं, तुम्हारी कामनाओं, तुम्हारी भूख-प्यास, तुम्हारे आदर्श की पूर्ति में निरत हो कर अपने को मटियामेट कर देने वाली मेरी शक्ति, जिस का तुम ने वरण किया है।
इस प्रकार अपने में केवल मात्र तुम्हें प्रतिबिम्बित करने की उत्सर्गपूर्ण चेष्टा में मैं तुम से अनेक बार जान-बूझ कर झूठ कहती आयी हूँ, किन्तु उसके लिए मेरे हृदय में अनुपात नहीं है, क्योंकि मैं नित्य ही आत्म-दमन की घोर यातना में उस का प्रायश्चित कर लेती हूँ।

डलहौजी, सितम्बर, 1934