राग पटदीप, तीन ताल 24.7.1974
मैं तो कोउ स्यामाजू की चेरी।
रहूँ सदा तिनके रँग राती, तिनही की रति-मति गति मेरी॥
सदा-सदा मैं उनकी अपनी चलू सदा उनही की प्रेरी।
उनकी प्रीति-नीति नित मेरी, और न नीति-भीति हिय हेरी॥1॥
वे प्रीतम प्रान-प्रेयसी, सो ही प्रीति प्रान नित मेरी।
बिना प्रीति मैं हूँ न कहूँ कुछ, रहत प्रीति की ललक घनेरी॥2॥
जुगल रसिक की सहज उपासी, दासी हों उनकी रसिकेरी।
रस ही के बस रहों सदा मैं, रस-रंकिनो रसिकजन-चेरी॥3॥