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मैं तो चुप था मगर उस ने भी सुनाने न दिया / शाज़ तमकनत

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मैं तो चुप था मगर उस ने भी सुनाने न दिया
ग़म-ए-दुनिया का कोई जिक्र तक आने न दिया

उस का ज़हराब-ए-पैकर है मेरी रग रग में
उस की यादों में मगर हाथ लगाने न दिया

उस ने दूरी की भी हद खींच रखी है गोया
कुछ ख़यालात से आगे मुझे जाने न दिया

बादबाँ अपने सफ़ीना का ज़रा सी लेते
वक़्त इतना भी ज़माने की हवा ने न दिया

वही इनाम ज़माने से जिसे मिलना था
लोग मासूम हैं कहते हैं ख़ुदा ने न दिया

कोई फ़रियाद करे गूँज मेरे दिल से उठे
मौक़ा-ए-दर्द कभी हाथ से जाने न दिया

‘शाज़’ इक दर्द से सौ दर्द के रिश्ते निकले
किन मसाइब ने उसे जी से भुलाने न दिया