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मैं तो बस्ती ढूढ़ रहा था मुझको मिले शमशान / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी

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मैं तो बस्ती ढूँढ़ रहा था मुझको मिले शमशान बहुत
मेरे मालिक तेरे जहाँ में खेत हैं कम खलिहान बहुत

हुस्न की दौलत वाले मुझको तेरी इक मुस्कान बहुत
कहने वाले सच कहते हैं मान का है इक पान बहुत

ज़िक्रे सियासत क़त्लो-ग़ारत मंदिर- मस्जिद धोखा-धड़ी
ऐसी ख़बरें सुनते सुनते पक गए अपने कान बहुत

इस दुनिया में जो जिंदा हैं वो तो भूखे नंगे हैं
जो मुर्दा हैं उनके लिए हैं जीने के सामान बहुत

तेरे दीवाने के अलावा कोई न समझा उसअते दिल
हर अरमान में इक दुनिया है और दिल में अरमान बहुत

अल्लाह रे दस्तूरे मोहब्बत कैसी कैसी शर्तें हैं
इश्क की सौ कुर्बानियाँ कम हैं हुस्न का इक एहसान बहुत

कितना मज़ा आता था 'बेखुद' डूबने और उभरने में
आके किनारे राज़ खुला ये अच्छा था तूफ़ान बहुत