मैं था कलाकार / अज्ञेय
मैं था कलाकार, सर्वतोन्मुखी निज क्षमता का अभिमानी।
मेरे उर में धधक रही थी अविरल एक अप्रतिम ज्वाला।
तुझे देख कर मुझे कला ने ही ललकारा-
तू विजयी यदि इस प्रस्तर-प्रतिमा में तूने जीवन डाला।
दीपन की ज्योतिर्मालाएँ, प्रोज्ज्वल तेज:पुंज उठाये :
मैं ने देखा, तेरा कण-कण किसी दीप्ति से दमक रहा था।
तुष्ट हुआ मैं- हाय दर्प! अब जाना मैं ने-
वह तो प्रतिज्योति से तेरा स्निग्ध बाह्य-पट चमक रहा था!
सुन्दरता है बड़ी कला से! हार हुई, मैं भुगत रहा हूँ;
किन्तु विधाता का उपहास-भरा अन्याय हुआ यह कैसा?
प्रस्तर! नहीं एक चिनगारी तक भी तुझ में जागी-
पर मेरे उर में चुभता है स्पन्दित शिलाखंड यह कैसा!
पुष्प-वृन्त-तुल्य रम्य लौह-शृंखले!
इन्दु-तुल्य शोभने, तुषार-शीतले!
लाहौर किला, 15 मार्च, 1934