मैं धरा पर प्यार के कुछ बीज बोना चाहती हूँ / उर्मिल सत्यभूषण
मैं धरा पर प्यार के कुछ बीज बोना चाहती हूँ
शूल जैसी जिं़दगी में फूल होना चाहती हूँ
ढूंढ़ती हूं प्यार का जल, मानवों के बीच रहकर
नफ़रतों के खू़न के मैं दाग़ धोना चाहती हूँ
यातनाओं के शिविर में आज भी दुःख झेलते जो
मैं उन्हीं की यातना का दर्द रोना चाहती हूँ
आदमी ही आदमी को दे रहा है घाव शक के
आंसुओं से आदमी के घाव धोना चाहती हूँ
राजनीति यक्षिणी को प्यार के पैग़ाम दे जो
अमन के उस यक्ष का वो मेघ होना चाहती हूँ
कांपते जिस्मों पे डालूं कुछ तो मैं खुशियों की धूप
कड़कड़ाते शीत का कुछ बोझ ढोना चाहती हूँ
इसलिये बढ़ते हैं मेरे हर दिशा परिचय के पांव
भावना के जल में मैं सबको भिगोना चाहती हूँ
वेदना, संवेदना की धार में खुद आप बहकर
जंग के दानव को मैं उसमें डुबोना चाहती हूँ
तुम मुझे तन्हा न छोड़ो जीने मरने के लिये अब
मैं तुम्हरे साथ हंसना, साथ रोना चाहती हूँ
कुछ तो उर्मिल इस धरा को और मैं सुंदर बना लूँ
बाद इसके ही मैं गहरी नींद सोना चाहती हूँ।