मैं नहीं रहूँगा / श्यामनन्दन किशोर
फूलेगा हरसिंगार, मैं नहीं रहूँगा।
घूमेगा द्वार-द्वार, मैं नहीं रहूँगा।
ओढ़े कुहासे की दूधिया रजाई,
तड़के ही झाँकेगी ऊषा अलसाई,
अम्बर के चुम्बन की उष्मा को धरती का
पोर-पोर छू लेगा, मैं नहीं रहूँगा।
हरसिंगार फूलेगा, मैं नहीं रहूँगा।
सिहरन की अँजुरी में झड़बेरी धूप यों,
यौवन की आँखों में शैशव का रूप ज्यों।
मौसम की खिड़की से बार-बार
होगी मेरी पुकार, मैं नहीं रहूँगा।
फूलेगा हरसिंगार मैं नहीं रहूँगा।
पीपल की फुनगी से जल्दी ही आयेगी
तन्द्रा की आँखों में सन्ध्या गहरागी।
गाँव के अलावों में प्रेम की कहानियाँ
होंगी ही दो-चार, मैं नहीं रहूँगा।
फूलेगा हरसिंगार मैं नहीं रहूँगा।
सुधि को धुँधलायेगा ठंढा वातास।
पर्वों की ऋतु वाला लम्बा अवकाश।
काम-काज ताख धरे
आसिन का हर दिन ही होगा रविवार,
मैं नहीं रहूँगा।
बाहर भी, भीतर का दर्द छन्द फूटेगा।
जहाँ कहीं जाऊँगा देश नहीं छूटेगा।
अपनों की प्यार भरी यादों की खींचतान,
भूलों की मेरी यह चादरिया मटमैली
होगी ही तार-तार मैं नहीं रहूँगा।
(12.10.79)