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मैं निकल जाऊंगा / राजा खुगशाल

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दिन निकलते ही मैं भी निकल जाऊँगा

शहरों, कल-कारखानों
और मजदूर बस्तियों को पीछे छोड़ता हुआ
रेल की खिड़की से हरे-भरे मैदानों को
जी भरकर देखता हुआ
कल मैं अपने गाँव पहुंच जाऊँगा

नदी के मुहानों पर धान के खेतों में नहर-नहर
अपनी रेत होती जिंदगी की धूप को गुनगुनाऊंगा

आँधियाँ उठेंगी
चाबुक-सी चमकेंगी बिजलियां
दरारें दिखेंगी
पुआल पर जाल बुनते हुए मछुए मिलेंगे मुझे

बचपन के यार-दोस्तए
सोहन और सबरू
मनसा और मंगतू
नहीं होंगे गाँव में
कुछ बूढ़े, बच्चे और औरतें होंगी

आँगन में अनाज समेटती हुई
खुश होगी चंपा
खेलते हुए बच्चेी दौड़े आएंगे
मुझे मेरे बचपन के नाम से पुकारा जाएगा
और शीशम के पेड़ से
झुंड के झुंड उड़ जाएंगे चिड़ियों के

सुनसान घोंसलों पर एक बार फिर सपने
अपने पंख फैलाएंगे।