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मैं पथिक हूँ / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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मैं पथिक! अमा की बेला में भी पाँव बढ़ाए जाता हूँ,
तुम मुझसे मत पूछो, कब से मैं ठोकर खाए जाता हूँ ।

मैं नहीं सोचता मंज़िल के शूलों पर! उसकी दूरी पर,
जाना हीं केवल लक्ष्य एक, जीने के जलते चार प्रहर!
सहता है हिम की शीतलता अंगार चूमनेवाला हीं,
लाता है कोई स्वर्ण किरण मझधार घूमनेवाला हीं
मैं मन की नौका पर बैठा मझधारों पर हीं बहता हूँ,
जो जूझ सक़े तूफानों से, जिंदगी़ उसे मैं कहता हूँ।

आनेवाले तूफानों को आने हीं दो, मैं दीप जलाए जाता हूँ,
मैं पथिक! अमा की बेला में भी पाँव बढ़ाए जाता हूँ ।

वह मानव क्या? जो मानवता को छोड़ पतन की ओर चले,
वह सरिता क्या? जो बाँधों से टकराकर धारा मोड़ चले!
युगपुरुष वही, जो स्वयं भटककर जग को राह बताता है,
सच्चा नाविक तो ज्वारों पर चढ़कर मस्ती में गाता है!
जग तुला प्रगति की बना रहा, बढ़नेवाला बढ़ जाएगा,
सोपान जमाना तोड़ रहा, चढ़नेवाला चढ़ जाएगा!
मैं पथिक पंथ की पीड़ा को हँसकर सहलाए जाता हूँ,
मै पथिक अमा की बेला में भी पाँव बढ़ाए जाता हूँ।