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मैं पागल, प्राण लुटा आया / विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'

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दुनिया ने केवल स्वर माँगा- मैं पागल, प्राण लुटा आया!

मन का बन फूला फूला था
साँसों में सौरभ झूला था
प्राणों की धरती पर जैसे
माधव का यौवन झूला था

तब ढँक न सका मैं अपनापन भर गये सुरभि से धरा गगन
इसलिए कि स्वर-माला से मैं फूलों सा गान लुटा आया!

फिर चिंता के दो क्षण आये
पग थके डगर पर भरमाये
मन ऊब गया सूनेपन में
आँखों में बादल भर आये

तब मैंने मन पहचान लिया, जग आतुर है यह जान लिया
इसलिए धुएँ में डूबा भी उर की मुस्कान लुटा आया!

सुख ने तो मधुर पराग लिया
दुख ने छती को आग किया
फिर भी जब दुनिया वालों ने
मेरा घर मुझसे माँग लिया

तब बेघर का बेचारा मैं अपनी मंज़िल से हारा मैं
असहाय पड़े करुणा वाले पथ को आह्वान लुटा आया!