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मैं प्रतिध्‍वनि‍ सुन चुका, ध्‍वनि खोजता हूँ / हरिवंशराय बच्चन

मैं प्रतिध्‍वनि‍ सुन चुका, ध्‍वनि खोजता हूँ।

मौन मुखरित हो गया, जय हो प्रणय की,
पर नहीं परितृप्‍त है तृष्‍णा हृदय की,
पा चुका स्‍वर, आज गायन खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्‍वनि‍ सुन चुका, ध्‍वनि खोजता हूँ।

तुम समर्पण बन भुजाओं में पड़ी हो,
उम्र इन उद्भ्रांत घड़‍ियों की बड़ी हो,
पा गया तन, आज मैं मन खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्‍वनि‍ सुन चुका, ध्‍वनि खोजता हूँ।

है अधर में रस, मुझे मदहोश कर दो,
किंतु मेरे प्राण में संतोष भर दो,
मधु मिला है, मैं अमृतकण खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्‍वनि‍ सुन चुका, ध्‍वनि खोजता हूँ।

जी उठा मैं, और जीना प्रिय बड़ा है,
सामने, पर, ढेर मुरदों का पड़ा,
पा गया जीवन, पर सजीवन खोजता हूँ;
मैं प्रतिध्‍वनि‍ सुन चुका, ध्‍वनि खोजता हूँ।