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मैं प्रीतम के रंग राचूँगी / स्वामी सनातनदेव

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राग बहार, कहरवा 2.8.1974

मैं प्रीतम के रँग राँचूँगी।
प्रीतम के रंग राँचि-राँचि मैं उनसों कछू न जाँचूँगी॥
प्रीतम ही हैं मेरे जीवन।
वे ही हैं मेरे तन मन धन।
बसे रहें नित मेरे नयनन।
मैं उनमें रति-मति राखूँगी॥1॥
प्रीतम बिनु कोउ और न मेरो।
वृथा जगत् को मेरो-तेरो।
सब कुछ है मो प्रीतम केरो।
मैं सबही सों हित मानूँगी॥2॥
प्रीतम की रति है मेरी मति।
मेरी है वह ही निज सम्पति।
चहों न कोऊ और सुगति-मति।
मैं प्रिय-रति में रँगि नाचूँगी॥3॥
मेरी अपनी कोउ न रुचि है।
प्रीतम की रुचि ही मो रुचि है।
ताही में मो मति रचि-पचि है।
मैं उनही की रुचि राखूँगी॥4॥
प्रिय को प्रेम नेम है मेरो।
और सबहि मोहिं लगत बखेरो।
त्यागि और सबको उरझेरो।
मैं प्रिय-रति-रस में पागूँगी॥5॥