भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं बढ़ता रहा / नामदेव ढसाल
Kavita Kosh से
जब सूरज
बुझने लगा रात की बाँहों में
तब मैं पैदा हुआ फुटपाथ पर
चीथड़ों में पला
और अनाथ हो चला
मुझे जन्म देने वाली माँ
चली गई आकाश के बाप की ओर
फुटपाथ के भूतों की यातनाओं से ऊबकर
धोती का अन्धेरा धोने के लिए
और किसी फ्यूज आदमी की तरह
मैं बढ़ता रहा
रास्ते की गन्दगी पर
पाँच पैसा दे दो
पाँच गाली ले लो
कहता हुआ
दरगाह के रास्ते पर ।
मूल मराठी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय