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मैं भीः स्त्री की आकांक्षाएँ / अनुभूति गुप्ता

हँसना चाहती हूँ मैं भी,
बिना किसी रोक-टोक के

सुनना चाहती हूँ मैं भी,
सागर का कलरव
नदियों की कल-कल ध्वनि
चिड़ियों का चहचहाना
हवाओं की ’साँय-साँय’

देखना चाहती हूँ मैं भी,
लताओं का इठलाना
पत्तों का झूमना
बादलों का बरसना
पंछियों का उड़ना

कहना चाहती हूँ मैं भी,
अपरिचित पीड़ा
प्रदीप्त वेदना
और-
मेरी मौलिक
विलुप्त आकांक्षाएँ।