भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं रहा बैठा बिछाए दृग-बिछौना / नागेश पांडेय ‘संजय’
Kavita Kosh से
मैं रहा बैठा बिछाए दृग-बिछौना,
आस का आकाश होता रहा बौना।
अब नयन हैं सजल, लेकिन
यह अकारण ही नहीं है ,
देर तक साथी! तुम्हारा पथ निहारा।
यह हृदय तूफान-सा ढोता रहा,
भाव का सागर बहुत रोता रहा।
अब अधर हैं विकल, लेकिन
यह अकारण ही नहीं है ,
कह नहीं पाए हृदय का भेद सारा।
अनगिनत पर्वत खड़े होते रहे,
न जाने क्यों पथ बड़े होते रहे ?
अब चरण हैं अचल, लेकिन
यह अकारण ही नहीं हैं,
बहुत चलकर भी न पाया दर तुम्हारा।