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मैं रहा बैठा बिछाए दृग-बिछौना / नागेश पांडेय ‘संजय’

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मैं रहा बैठा बिछाए दृग-बिछौना,
आस का आकाश होता रहा बौना।
अब नयन हैं सजल, लेकिन
यह अकारण ही नहीं है ,
देर तक साथी! तुम्हारा पथ निहारा।


यह हृदय तूफान-सा ढोता रहा,
भाव का सागर बहुत रोता रहा।
अब अधर हैं विकल, लेकिन
यह अकारण ही नहीं है ,
कह नहीं पाए हृदय का भेद सारा।


अनगिनत पर्वत खड़े होते रहे,
न जाने क्यों पथ बड़े होते रहे ?
अब चरण हैं अचल, लेकिन
यह अकारण ही नहीं हैं,
बहुत चलकर भी न पाया दर तुम्हारा।