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मैं वहम हूँ या हक़ीक़त ये हाल देखने को / कृश्न कुमार तूर

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मैं वहम हूँ या हक़ीक़त ये हाल देखने को
गिरफ़्त होता हूँ अपना विसाल देखने को

चराग़ करता हूँ अपना हर इक अज़ू-ए-बदन
त्तरस गया हूँ ग़मे-ला-ज़वाल देखने को

मैं आदमी हूँ कि पत्थर जवाब देते नहीं
चले हैं चले हैं कोहे-नदा से सवाल देखने को

न शऊर हैं न सताइश अजब ज़माना है
कहीं पे मिलता नहीं अब कमाल देखने को

मैं ‘तूर‘ आख़िरी साअत का एक मंज़र हूँ
वो आ रहा है मुझे बे मिसाल देखने को