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मैं विद्रोही मैं यायावर (कविता) / कुमार विमलेन्दु सिंह

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और भी कुछ पथ हैं शेष
बचे हैं कुछ प्रश्न विशेष
क्यों रुक जाऊँ फिर यहीं रात भर?
मैं विद्रोही, मैं यायावर!

बना किया था स्वयं ही श्रोता
सुना किया था श्वास संगीत
इसी भूतल पर तना किया था
यहीं हुआ था कभी विनीत

स्मृतियाँ तो हैं कई यहाँ
कुछ टूटे स्वप्रों के हैं अवशेष
उस साथी राग भी हैं
उन रिपुओं का भी है देव्ष
किन छवियों को साथ ले चलूँ
और बहूँ किन्हें छोड़कर
यही सोच रहा हूँ अब तक
मैं विद्रोही, मैं यायावर!

मेरे राग के बिना कहाँ तब
कोई उत्सव होता था
थक जाते थे चक्षु सबके पर
उन रातों को कोई कब सोता था?
टूटते थे कुछ दंभ वहाँ
और जुटते थे ह्रदय कई
स्वप्रों का आलय भी था
भावों का भी था एक घर
छोड़ आया सब वहीं पर
मैं विद्रोही, मैं यायावर!