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मैं शरण आ पड़ा शरणद नाथ! तुम्हारी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मैं शरण आ पड़ा शरणद नाथ! तुम्हारी।
मनमें कर दृढ़ विश्वास, आस ले भारी॥
मुझको अब, हे सर्वस्व! तुरत अपना लो।
सब विधि करके स्वीकार, सु-यन्त्र बना लो॥
मेरे जीवनमें अपनी ज्योति जगा दो।
चिर-‌अन्धकारको निश्चित मार भगा दो॥
शीतल प्रकाशसे हो जगमग जग सारा।
तम मिटे सभीका, सबमें हो सुख न्यारा॥
इस जान-ज्योतिसे हो जीवन आलोकित।
हो नाश सभी अजान, जान-तन-पुलकित॥
तुम निज सुवास दे, जीवन सुरभित कर दो।
सब जगको उस सुन्दर सुगन्धसे भर दो॥
पाकर पावन सौरभ, पुनीत सब जग हो।
सबका जीवन अति पुण्यधाम सौभग हो॥
सबके जीवनमें तव महिमा जग जाये।
तव कीर्ति-गानमें ही जीवन लग जाये॥
तुम अपनी सुन्दरतासे मुझे सजा दो।
जीवनका बाह्य असार सु-रूप लजा दो॥
इस सुन्दरतासे सारा जग सुन्दर हो।
इससे ही विकसित सुन्दर मन-मन्दिर हो॥
सुन्दर हो सत्‌‌से भरा, भरा सुखसे हो।
यह सुन्दर ही तनसे, मनसे, मुखसे हो॥