भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं शाद हूँ तो ज़माने में शाद-मानी है / 'नुशूर' वाहिदी
Kavita Kosh से
मैं शाद हूँ तो ज़माने में शाद-मानी है
शराब लाओ के आलम तमाम फ़ानी है
तमाम आलम-ए-हस्ती पे हुक्मरानी है
मेरा जहाँ है जब तक मेरी जवानी है
रगों में रूह है और ख़ून में रवानी है
निगाह बादा-कश ओ चेहरा अर्ग़वानी है
तग़य्युरात के आलम में ज़िंदगानी है
शबाब फ़ानी नज़र फ़ानी हुस्नी फ़ानी है
कहीं कहीं ये मोहब्बत भी ग़ैर-फ़ानी है
जहाँ ख़याल हक़ीक़त की तर्जुमानी है
तेरे ख़याल से है मस्ती-ए-नज़र मेरी
तेरी निगाह से मैं ने शराब छानी है
तेरा जमाल फ़सानों में रंग भरता है
तेरे शबाब से दिल-कश मेरी कहानी है
मेरी हयात में जब तू नहीं तो कुछ भी नहीं
तेरे बग़ैर भी क्या ख़ाक ज़िंदगानी है
दिल-ए-फ़सुर्दा में होती है ज़िंदगी पैदा
‘नशुर’ जुरा-ए-सहबा भी ज़िंदगानी है