भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं से हम / राकेश पाठक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस अंतस्थ में
कितना कोलाहल है

कितना कुछ भर रखा है अंदर में हमनें

सुनो,
बुद्ध विवेक के व्यतिकरण के लिए
आये थे इसी सलिल तट

वृक्ष के नीचे
यहीं झरी थी ज्ञान की ऊंझा

आओ
इस तट पर सम हो लेते हैं
आओ अपने मैं से
हम हो लेते हैं !