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मैं हँस पड़ा हूँ बहुत ज़ोर से, मगर कैसे / फ़रीद क़मर

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मैं हँस पड़ा हूँ बहुत ज़ोर से, मगर कैसे
ये दुःख छुपाने का आया मुझे हुनर कैसे

मैं टूट टूट के बिखरा पड़ा हूँ राहों में
न पूछ मुझसे कटा ज़ीस्त का सफ़र कैसे

ये मैकदा है, यहाँ ज़िन्दगी हराम नहीं
जनाबे-शैख़ भला आ गए इधर कैसे

तमाम शब् का जगा हूँ ये राज़ जानता हूँ
दिये की लौ से फ़रोज़ाँ हुई सहर कैसे

फलक को छूने की शायद किसी ने कोशिश की
ज़मीं पे बिखरे हैं टूटे हुए ये पर कैसे