भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं ही देख नहीं पाता / सुदर्शन रत्नाकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने कहा था, तुम आओगी
मैं अंधेरी रात में
दिल का दीपक जला कर
तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा
क्योंकि तुमने कहा था
तुम आओगी।
भोर होते ही मैंने तुम्हें
ऊषा की लालिमा में देखा
उगते सूर्य की किरणों में ढूँढा
हरी दूब पर गिरी ओस की बूँदों में पाया
खिलते-मुस्कुराते फूलों में छुआ
पक्षियों की चहचहाट में,
भँवरों की गुँजार में सुना
तितलियों के रंगीन पंखों में,
नदी के बहते पानी में
पवन के स्पर्श में महसूसा।
तुम हर दिशा में थी
कण-कण में थी
मैं यूँ ही बंद दरवाज़ों के पीछे
दिल का दीपक जलाए
तुम्हारी प्रतीक्षा करता रहा कि
तुम आओगी
पर तुम तो मेरे सामने थी
सितारों की चमक में थी
सोई रात के सन्नाटे में थी
चाँद की चाँदनी में थी
मैं यूँही ढूँढ़ता रहा
तुम तो रोज़ आती हो
हर पल, हर क्षण आती हो
बस रूप बदल कर आती हो
मैं देख नहीं पाता
तुम तो मेरे पास होती हो।