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मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी / शार्दुला नोगजा
Kavita Kosh से
मैं हूँ वो प्यास जो अनबुझी रह गयी
कलिष्ट वो शब्द जो अनकहा रह गया
मैं वो पाती जो बरसात में भीग कर
इतना रोई कि सब अनपढ़ा रह गया ।
मैं हूँ रश्मिरथी की त्रिभुज सी किरण
चूम कर भूमि, रथ फिर चढ़ा ना गया
मैं कभी वाष्प बन, फिर कभी मेह बन
इतना घूमी कि मोती गढ़ा ना गया ।
मैं वो धुंधली परी, कल्पना से भरी
जिसके पंखों को ले कर समय उड़ गया
नीले घोड़े पे आया था छोटा कुंवर
पर उबलती नदी से परे मुड़ गया ।
मैं वो यौवन जो आभाव से ब्याह गई
मैं वो बचपन जो पूरा जिया ना गया
तृष्णा और तृप्ति के मध्य में मैं खडी
एक अरदास मन से पढ़ा ना गया ।
मैं वो जोगन जो मेंहदी रचे पाँव ले
राजघर तो चली पर रहा ना गया
मीरा की चाह में, राणा की आह! में
मैं वो दोहा जो पूरा कहा ना गया ।