मैं हूँ / माहेश्वर तिवारी
आसपास
जंगली हवाएँ हैं,
मैं हूँ ।
पोर-पोर
जलती समिधाएँ हैं
मैं हूँ ।
आड़े-तिरछे
लगाव
बनते आते, स्वभाव
सिर धुनती
होंठ की ऋचाएँ हैं
मैं हूँ ।
अगले घुटने
मोड़े
झाग उगलते
घोड़े
जबड़ों में
कसती वल्गाएँ हैं
मैं हूँ ।
इस गीत की कवि राजेन्द्र गौतम द्वारा की गई व्याख्या
पूरे गीत की संरचना देखिए। पुराने गीतों की तुलना में सबसे पहला तथ्य तो इस गीत से यह उभरता है कि इसमें बच्चन-युग के गीतों का विस्तार नहीं। ऊपर से दिखता है कि शायद इसमें कोई निश्चित छन्द-व्यवस्था नहीं है, पर यह आभासित सत्य है। लय एवं कथ्य के आधार पर छन्द की इस पंक्ति को ‘आसपास जंगली हवाएँ हैं, मैं हूँ’ को तीन पंक्तियों में तोड़ा गया है। यह भी लगता है कि टेक और अन्तरा में मात्राओं की व्यवस्था एक-सी नहीं है। इसलिए किसी मूल छन्द की व्यवस्था नहीं है। पर यह ‘लगता भर’ है, वास्तविक नहीं है। नवगीत में छन्द की शाश्वत जकड़न को अस्वीकार कर उसको कथ्य के अनुरूप लचीला तो बनाया गया है, मूल लय को खण्डित नहीं होने दिया। मूल लय-संरचना को बनाए रखना छन्द के अधकचरे ज्ञान से सम्भव नहीं।
नवगीत के कथ्य में पारम्परिक गीत से बहुत अन्तर है। कवि पहले ही शब्द से आपको परिवेश से जोड़ता है। हवाओं की उपस्थिति बतते हुए वह हवा के साथ एक विशेषण जोड़ता है — ‘जंगली’। अब हवा मानवीकृत हो गई है, पर यह छायावादी मानवीकरण नहीं है, जिसमें प्रकृति के माध्यम से कवि का ‘स्व’ व्यक्त होता है। यह वह परिवेश है जहाँ प्रकृति भी पात्रता प्राप्त करती, व्यक्तित्व प्राप्त करती है। ‘जंगली’ शब्द के उच्चारण के साथ पंजे उभरते हैं, नाख़ून उभरते हैं, हिंसक लाल आँखें और दाढ़े उभरती हैं और ये सब हवा के साथ जुड़ जाती हैं। हवा और कहीं नहीं हैं, बहुत आसपास है। इस हिसंकता के बहुत पास ‘मैं हूँ। यह ‘मैं’ कवि है, आम आदमी है, जनता है। एक वचन नहीं, बल्कि ‘हम’ है। हम जो इस हिंसक परिवेश में घिरे हैं।
गीत में किफ़ायती होकर शब्दों का प्रयोग करना होता है । कवि ने इन छह शब्दों में दो वाक्य दिए हैं। ‘है’ और ‘हूँ’ दो क्रियाएँ हैं और दो वाक्यों से पूरे परिवेश को, उसकी भयावहता के साथ चित्रित कर दिया है। टेक पंक्ति की पूरक पंक्ति हैं — ‘पोर-पोर जलती समिधाएँ हैं, मैं हूँ ।’ जंगली हवाओं के साथ यदि समिधाएँ जल रही हैं तो केवल पोर-पोर तक उनकी जलन नहीं पहुँची, बल्कि इतिहास और संस्कृति के जलने का बिम्ब इसमें है । यह संस्कृति वर्चस्ववादी संस्कृति नहीं, बल्कि मनुष्य के जलने की विडम्बना इसमें है ।
पूरा गीत दो छोटे अन्तरों में सम्पन्न हो जाता है पर जंगली हवाएँ, जलती समिधाएँ और होंठ की ऋचाएँ क्रमशः मानवीकृत होती हैं । यन्त्रणा, यातना और भयावहता की सघनता दूसरे अन्तरे में देखी जा सकती है । कवि ने एक बिम्ब दिया है — ‘‘अगले घुटने मोड़े घोड़े झाग उगल रहे हैं और उनके जबड़ों में वल्गाएँ कसती जाती हैं ।’’ बेबसी ढोते आम आदमी का इससे संगत बिम्ब नहीं हो सकता । बार-बार पड़ते साँटों से आगे बढ़ने का प्रयास, पर भूख-प्यास से बेदम होकर इस प्रयास की विफलता में अगले घुटनों का मुड़ना पूरे सन्दर्भ को व्याख्यायित कर देता है ।
इस समूचे सन्दर्भ को कवि इस रूप में मार्मिक बना देता है कि हर टेक पंक्ति के साथ चुपके से आ बैठता है — मैं हूँ। यह ‘मैं हूँ’ अनेक अर्थवाची है । मैं भयावह परिवेश के पास हूँ, मैं इस भयावह परिवेश का शिकार होने वाला हूँ, मैं इस भयावह परिवेश में हूं तो पर इसका प्रतिकार नहीं कर पा रहा । असामाजिक तत्व, सत्ता की साँठ-गाँठ और क्रूर व्यवस्था के खूँखार होने का बिम्ब इस गीत में उभरता है ।
इस गीत की लय और छन्दविधान पर गौर कीजिए । गीत की लय एक करुणा को बहाती लगती है । एक सार्थक सफल नवगीत इसी प्रकार की समग्रता से जन्म लेता है । माहेश्वर जी ने ऐसे सैंकड़ों गीत रचे हैं ।