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मैं / विभा रानी श्रीवास्तव

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काश !
मैं एक विशाल वृक्ष
और या
छोटे-छोटे पौधे ही होती...!

 एक विशाल वृक्ष ही होती जो मैं ...,
 मेरी शाखाओं-टहनियों पर
पक्षियों का बैठना - फुदकना,
 मेरे पत्तों में छिपकर
 उनका आपस में चोंच लड़ाना ,
 उनकी चह-चहाहट - कलरव को सुनना ,
उनका ,शाखाओं-टहनियों पर ,पत्तों में घर बनाना ,
 गिलहरी का पूछ उठाकर दौड़ना-उछलना मटकना ,
मेरी छाया में थके मनुष्य ,
 बड़े जीव जंतुओं का आकर बैठना
उनको सुकून मिलना ,
सबको सुकून में और खुश देख कर
मेरी खुशी को भी पंख लग जाते...
मेरे शरीर से निकली आक्सीजन की
स्वच्छ वायु जीवन को सुकून देते ,

छोटे-छोटे पौधे ही होती जो मैं ....
मेरे फूलो से निकले खुशबू ,
वातावरण को सुगन्धमय बनाती ....
मेरे पत्तों-बीजों से
औषधि बनते
 सबको नवजीवन मिलते
 कितनी खुश होती मैं...
मेरे द्वारा बयाँ करना मुश्किल है...

लेकिन
कन्या , बाला , नारी औरत हूँ मैं
जुझारू और जीवट।
 जोश और संकल्पों से लैस मैं!
सामाजिक-राजनीतिक चादर की गठरी में कैद मैं!

सामाजिक ढाँचे में छटपटातीं-कसमसातीं मैं!
नए रिश्तों की जकड़न-उलझन में पड़ कर
पर पुराने रिश्तों को भी निभाकर
हरदम जीती-चलती-मरती हूँ मैं!
रिश्तों में जीना और मरना काम है मेरा ....
ऐसे ही रहती आई हूँ मैं!
ऐसे ही रहना है मुझे ?

उलझी रहती हूँ उनसुलझे सवालों में मैं!
जकड़ी रहती हूँ मर्यादा की बेड़ियों में मैं!
जीतने हो सकते हैं बदनामी का ठिकरा
हमेशा लगातार फोड़ा जाता है मुझ पर
उलझी रहती हूँ मैं!
 लेकिन
हँसते-हँसते सब बुझते -सहते
हो जाती हूँ कुर्बान मैं!

कब-कब , क्यूँ-क्यूँ , कहाँ-कहाँ , कैसे-कैसे
 छली , कुचली , मसली और तली गई हूँ मैं!
मन की अथाह गहराइयों में
दर्द के समुद्री शैवाल छुपाए मैं!
शोषित, पीड़ित और व्यथित मैं!
मन, कर्म और वचन से प्रताड़ित मैं!

मानसिक-भावनात्मक और
सामाजिक-असामाजिक
कुरीतियों-विकृतियों की शिकार मैं!
लड़ती हूँ पुराने रीति-रिवाजों से मैं!
करती हूँ अपने बच्चों को सुरक्षित मैं!
अंधविश्वासों की आँधी से
खुद रहती हूँ हरदम अभावों में मैं!
पर देती हूँ सबको अभयदान मैं!
हाँ मैं स्त्री हूँ मैं!