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मैथिली वन्दना / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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जनिक चरण-नख ज्योति तिमिर-तति उर-उर हरइत
नूपूर-सिंजित संचित कयनहि वीणा मुखरित
पद - पल्लवक पराग सती - शिर सिन्दूर - श्री
चरण - चिह्न बनि भाग्य-रेख मिथिलाक उदित की?
मैथिलीक पद-अंगुलिक विभा उदित भय कविक उर।
अरुण करुण रस-रश्मिसँ हरओ लोक-व्यापित तिमिर।।1।।
जनक जनिक अन्वर्थ सदर्थक जन्म - भूमि ई
जानकीक जन्मेँ जनमे अभिधाक जीत ई
सीता खेतक स्वय लक्षणा लक्षित रहितहुँ
मैथिलि! मिथिला-वाणीमे रुचि व्यंजित करितहुँ
रहितहुँ विश्व-विभूति अहँ तिरहुति-माटिक मूर्ति छी।
रसरसना सम मैथिली मिथिला-मानक पूर्ति छी।।2।।
चक्रवर्ति दशरथक कुलक अहँ दीप - शिखा बनि
कयलहुँ ज्योतिर्मय अवधक नभ चन्द्र - कला धनि
सरयू जलमे घोरि चरण - रज मधुर बनौलहुँ
कोशलेशकेर भुजा - वासिनी शक्ति कहौलहुँ
भोग वयस वन-वासिनी बनि योगक पथ अहँ धेलहुँ।
नहि जीवन भरि बिसरलहुँ ज विदेह - पुत्री थिकहुँ।।3।।

धनुर्भंहिक समय अंग अहँ रामक वामा
बनि चललहुँ जे छोड़ि सती - कुल - रत्न ललामा
रहू बनल युग युग धरि रविकुल - दिवस - कमलिनी
सुरभि विश्व भरि पसरि रहल अद्यावलि जननी
फिरलहुँ नहि दुर्देववश जनकक जनपद जन्म भरि।
किन्तु नैहरक स्वर अहाँ बिसरल छी नहि आइ धरि।।4।।
धनुष - यज्ञ सर्वस्व - दक्षिणा जनकक जारी
दाशरथिक रथ भरल स्वर्ण यौतुकसँ भारी
बिदा काल दय रत्न-राशि कोशलक कोषमे
हृदय रिक्त जल - सिक्त जुटल छथि बरक तोषमे
अपना खोँछिक अन्न - कण पोछि नयनसँ अश्रु-कण
खसा देलहुँ नैहरक दिस सजल शस्य श्यामल कत न।।5।।
जे छाया हिमवत - वनमे रस कमला जलमे
डाली भरलहुँ लोढ़ि फूल - फल जे फुलहरमे
द्वारि लटकि शुक पाठ कयल कोकिल कूजल छल
सखी संग सम्भाषणमे जे स्नेह स्वर भरल
कहू मैथिली! की कतहु भेटल स्व - रस प्रवासमे?
अवध - पुरी रनिवासमे पंचवटी बन - वासमे?।।6।।
यज्ञबाट ई बाट अहँक कहियासँ ताकथि
ऋतु - ऋतु वन - वन फूल - पात लय माला गाँथथि
जल भरि कमला ठाढ़ि कखनसँ घरक कातमे
कुशल पुछै छथि सखी वाग्वती बात - बातमे
तारक पंखी पाँतरक कर, झारी चर - चाँचरक।
मैथिलि! उत्सुक अवनि छथि भरल अन्नसँ आँचरक।।7।।
नीति - निरत राजा देखल निज अवध - प्रजा मति
अनल - शुद्ध संगिनी मैथिलिक लिखल वनक गति
किन्तु करुण परिपाक आश्रमक बनि शुचि कविता
तमसा - तीरक कवि - आङन मे रस उर्वरिता
वन - वासिनि! एकाकिनी दूरहु पति-उर वासिनी।
करुण अश्रु - कणसँ अहिँक रामायण रस प्लाविनी।।8।।
पतिक बात नहि राखि पिता - घर सती जरलि छथि
उतरि शिवक शिरसँ गंगा समुचिते गललि छथि
माधव संग न जाय राधिका विरह - बरलि छथि
काली हर - उर चरण राखि जी दाबि दगलि छथि
किऐ बनलि वन-वासिनी पति-पद रेणु सुता हमर।
ज्वालामुखी न थीक ई ज्वलित प्रश्न धरणीक उर।।9।।
मेघ - यज्ञमे अवध मध्य बनि स्वर्णक प्रतिमा
भेलहुँ प्रतिष्ठित-प्राण अहाँ हे! रामक वामा
मन्दिर-मन्दिर समय-समय भारत भरि चर्चा
किन्तु एतहि टा प्राण-प्राण मे होइछ अर्चा
युग-युगमँ मिथिलाक अहँ रोम-रोम रमि गेल छी।
मैथिलीक रूपेँ अहाँ की न कण्ठ बसि गेल छी?।।10।।