मैना का मुक्त हो श्रीपुर पहुँचना / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
चलि मां पंखी पाछु न हेरा। संझा वन मंह कीन्ह वसेरा।।
तजि वन खंड देश जब आऊ। जाति पांतिसे भी सतिमाऊ।।
”पारस“ भेद पूछि सब लीना। चले चोख मन आनंद कीना।।
बहुत दिवस पुनि पंथ गंवाये। क्षेम कुशल पुनि अमरे जाये।।
देव्यो ”श्रीपुर“ नगर सुहावा। जानो इन्द्र यहाँ रहु छावा।।
विश्राम:-
वाग वगीचा चहुंदिशि, ताल तडाग इंदार।
सुदिन सुवेला शुभ घरी, नगर कीन पंसार।।31।।
चौपाई:-
नगर निरखि पुनि ठाहर आई। जँह तँह बैठे कुंअरि अथाई।।
पुनि मैना घर भीतर आई। जेहवा कुँअरि हिंडोल झूलाई।।
देख्यो कुँअर हिंडोला वैसी। सागरतनया रम्भा जैसी।।
कुँअरि के रूप निरखि मन लाई। श्रवण सुन्यो तस चाह सवाई।।
प्रथमहि कुंअरिके मांगि निरेखी। सेंदुर रेखन मेख न देखा।।
विश्राम:-
हरखित कह परमारथी, अबले कुँअरि कुंआरि।
जो विधि रचि राखेऊ, वहे पुरुष यह नारि।।32।।